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द्वंद्व में उलझी भाजपा

सत्ता के लिए भटकाव से बाहर आना जरूरी

मो. इफ्तेखार अहमद,'पार्टी विद डिफरेंट का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी इन दिनों पूरी तरह पार्टी ऑफ डिफ्रेंसेज बन कर रह गई। दिल्ली में बीजेपी ने पार्टी की दो दिवसीय कार्यकारिणी तो बुलाई थी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी यूपीए सरकार को घेरने की रणनीति बनाने के लिए, लेकिन, पार्टी के कुछ छत्रपों ने ऐसी कारगुजारी पेश की कि पार्टी पूरी तरह अपने ही घर में उलझती चली गई।
कुल मिलाकर कहा जाए तो कार्यकारिणी की बैठक आडवाणी वर्सेज मोदी की भेंट चढ़कर रह गई। कार्यकारिणी की कार्यवाही के दौरान सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी द्वारा सरकार को घेरने के लिए बनाई गई रणनीति की खबरें तो कम आईं, लेकिन पार्टी में जारी खींच-तान और गुटबाजी की खबरें ही सुर्खियों में रहीं। इस पूरे प्रकरण में वाइब्रेंट गुजरात के प्रणेता मोदी सबसे आगे रहे। यानी कार्यकारिणी में न आते हुए भी मोदी मीडिया में छाए रहे। दरअसल, मोदी पार्टी के लौहपुरुष आडवाणी से नाराज बताए जा रहे हैं। आखिर नाराज भी कैसे न हों, मोदी संघ परिवार की ओर से पीएम इन वेटिंग का सबसे बड़े उम्मीदवार हैं और आडवाणी मोदी को चुनौती दे रहे हैं। आडवाणी अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए देशभर में रथ यात्रा का आगाज कर जनता के बीच अपनी पकड़ एक बार फिर मजबूत कर पीएम बनकर जिंदगीभर की कमाई (राजनीतिक संघर्ष) के फल का स्वाद चख ही लेना चाहते हैं। लेकिन, जिन्ना प्रकरण पर आडवाणी से भाजपा अध्यक्ष पद की कुर्सी छीन चुका संघ, नहीं चाहता कि आडवाणी की स्थिति फिर से मजबूत हो। लिहाजा, संघ तो आडवाणी और गडकरी को नागपुर बुलाकर उनकी क्लास भी ले चुका है कि आखिर पार्टी संसदीय दल की इजाजत के बिना आडवाणी ने कैसे रथ यात्रा का ऐलान कर दिया। संघ के इस रवैये से तिलमिलाए आडवाणी ने भी नहले पर दहला मारते हुए संघ को चुनौती दे डाली कि संघ और भाजपा कौन होता है मुझे पीएम बनाने से रोकने वाला। मुझे तो एनडीए पीएम बनाएगा।  इसके साथ ही आडवाणी ने अपनी रणनीति बदलते हुए मोदी के बजाए प्रखर मोदी विरोधी और अपने राज्य में मोदी को चुनाव प्रचार तक करने की इजाजत नहीं देने वाले एनडीए के प्रमुख सहयोगी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से न सिर्फ नजदीकी बढ़ा ली, बल्कि हमेशा सोमनाथ से यात्रा करने वाले आडवाणी ने इस बार भारी उलटफेर करते हुए बिहार के सारण से रथ यात्रा शुरू करने का ऐलान कर दिया। इसके साथ ही इस बात का भी ऐलान किया कि नीतीश ही रथ को हरी झंडी दिखाएंगे। बताया जाता है कि पीएम के पद तक पहुंचने के मार्ग में एकमात्र बाधा आडवाणी के इस कदम से मोदी खासे नाराज हैं। नाराजगी का ये आलम की अपने आपको पार्टी का अनुशासित सिपाही कहने वाले मोदी ने कार्यकारिणी की बैठक को ही ठेंगा दिखा दिया। मोदी के इस कदम से सवालों से घिरे पार्टी प्रवक्ताओं ने जहां मोदी की व्यस्तता और नवरात्र का व्रत का बहाना बनाया, वहीं मोदी ने सोमनाथ ट्रस्ट की बैठक में जाकर जता दिया कि तीन दिन तक उपवास रखने वाला संघ का ये शेर नवरात्र में दिल्ली आने में अक्षम नहीं है। ये तो आडवाणी को खुली चुनौती है।
             यह तो भाजपा में कलह का एक पक्ष है। असलियत तो ये है कि आडवाणी पर संघ का विश्वास खत्म होने के साथ ही भाजपा नेतृत्वविहीन की स्थिति में आ गई। क्योंकि, भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी के बाद आडवाणी ही ऐसे वरिष्ठ नेता हैं, जो घर को संभालने में सक्षम हंै। लिहाजा, आडवाणी के कमजोर पडऩे से दूसरी पंक्ति के नेता नेतृत्वविहीन होने से उद्दंड हो गए हैं और सभी पार्टी से ज्यादा अपनी स्थिति मजबूत करने की फिराक में हैं। दूसरी विडंबना ये है कि भाजपा ने अब तक आडवाणी का विकल्प भी तैयार नहीं किया है। संघ भाजपा अध्यक्ष की तरह 2014 में प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को उतारने पर उतारू है। जबकि, पार्टी के समझदार और थिंकटैंक अच्छी तरह समझते हैं कि मोदी को उतारना घातक साबित होगा। क्योंकि, भाजपा अकेले दम पर सरकार बनाने से रही और अल्पसंख्यक वोटों के सहारे राजनीति करने वाले एनडीए के घटक मोदी को समर्थन देने से रहे। इन पार्टियों के लिए मोदी कितना नुकसानदायक हैं, इसका अंदाजा साल 2004 के लोकसभा चुनाव के नतीजे से लगाया जा सकता है। कैसे आन्ध्र प्रदेश में टीडीपी, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, जम्मू और कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला को अपनी सत्ता गवानी पड़ी या फिर भारी हार का सामना करना पड़ा। खुद भाजपा के विजय गोयल और शाहनवाज हुसैन को कहना पड़ा कि हमारी हार मोदी के कारण हुई है।
            भाजपा का कट्टरपंथी धड़ा भले ही प्रधानमंत्री के रूप में मोदी को प्रोजेक्ट कर रहा हो, लेकिन विकास की राजनीति करने वाले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान न सिर्फ हमेशा मोदी लाइन से अपने आप को अलग रखते हैं, बल्कि मोदी के कार्यक्रमों में भी जाने से परहेज करते हैं। दरअसल, इन नेताओं को ये बात अच्छी तरह समझ में आ चुकी है कि मोदी लाइन पर चलने का मतलब अपनी सर्वस्वीकार्य चरित्र की बलि देने जैसा है, जो उन्हें गवारा नहीं है। क्योंकि, जज्बात की राजनीति एक बार एक इलाके में तो की जा सकती है, लेकिन विविधताओं से भरे इस देश में उसी की राजनीति सफल होगी, जो सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखेगा। हकीकत तो ये है कि नेता के चयन के साथ ही विचारधारा के मामले में भी भाजपा द्ंद्व की स्थिति में है। एक भाजपा का पुराना कटट्रपंथी पार्टी का चरित्र है, जिसे वह बदलना नहीं चाहते हैं। दूसरी ओर सत्तासुख की चाहत भी परेशान कर रही है। भाजपा के सामने दोनों द्वंद्व के नतीजे भी सामने है। लेकिन, संघ परिवार की हठधर्मिता के कारण भाजपा अपना मार्ग तय नहीं कर पा रही है।
            गुजरात को एक बार छोड़ दें तो भाजपा कट्टरपंथ और नफरत के रास्ते से कभी सत्ता हासिल करने में कामयाब नहीं रही। आज जिन राज्यों में भाजपा की सरकार है, वह सभी विकास के नाम पर बनी हैं न कि हिदुत्व के नाम पर। अगर भाजपा अब भी जाग गई और इन दोनों समस्याओं का हल समय रहते निकाल लिया तो आज देश के हालात जैसे हैं और मनमोहन सरकार से लोगों का मोह जिस तरह से भंग हो गया है। उसे सत्ता में आने से रोकने वाला कोई नहीं होगा। क्योंकि, जनता परिवर्तन चाहती है और उसके सामने विकल्प नहीं है। बावजूद इसके अगर भाजपा संघ के इशारों पर हठ पर अड़ी रही तो आडवाणी का सत्ता सुख एक सपना ही रह जाएगा और मोदी तो कभी प्रधानमंत्री बनने से रहे।

 

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