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विकास पुरुष का स्याह पक्ष



मो. इफ्तेखार अहमद,
गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी भले ही खुद को पूरे देश में विकास की प्रतिमूर्ति के रूप में पेश करते हों और गुजरात में 11 साल पुरानी सत्ता की कामयाबी के बाद अब देश की सत्ता संभालने का सपना देख रहे हों. लेकिन, उनकी तमाम उपलब्धियों का स्याह पक्ष यह है कि आज भी मोदीराज में अल्पसंख्यकों का हित सुरक्षित नहीं है. गुजरात में बेगुनाह मुस्लिम युवाओं को जेल में डालने और फर्जी एंकाउटर के मामले तो जग जाहिर है. लेकिन एक बात जिस पर कभी चार्चा नहीं होती है वह है अल्पसंख्यक विद्यार्थियों के शैक्षणिक उन्नयन के लिए केन्द्र सरकार की प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना पर पिछले 5 सालों से मोदी द्वारा लगाई गई रोक. लंबी कानूनी लड़ाई के बाद वर्श 2013 में जब गुजरात हाईकोर्ट ने इस खतरनाक साजिष पर मोदी को फटकार लगाते हुए रोक लगा दी तो मोदी ने अपने इस अमानवीय कृत से पांव पीछे खींचने के बजाए हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी है. सुप्रीम कोर्ट में पेष हलफनामे में मोदी ने अपने कृत को जायज ठहराने की न सिर्फ कानाम कोषिष की है, बल्कि सच्चर कमेटी के गठन और उसकी सिफारिषाों को ही असंवैधानिक बताकर अपनी अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता का एक बार फिर से परिचय दिया है. इसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि मोदीराज में 2002 में जो हुआ, उस पर उन्हें न तो शर्मिंदगी है. बल्कि, वे आज भी उसी रास्ते पर कामजन है. बस फर्क ये है कि उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति का रास्ता बदल दिया है.
     
दरअसल केन्द्र सरकार की ओर से वर्ष 2008-2009 में अल्पसंख्यक विद्यार्थियों के ड्रॉप आउट को रोकने और अल्पसंख्यक परिवारों को अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने के इरादे से शुरू की गई प्री मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना को गुजरात सरकार ने अब तक लागू नहीं किया है. खास बात ये है कि गुजरात देष का मात्र एक ऐसा राज्य है, जहां प्री- मैट्रिक स्कष्लरषिप योजना को लागू नहीं किया गया है. गुजरात के इलावा बाकी सभी राज्यों यहां तक कि भाजपा षासित प्रदेषों में भी इस योजना का क्रियानवेयन बदस्तूर जारी है. इस योजना के तहत राज्य सरकार को केंद्र ७५ प्रतिशत मदद देता है. जब मोदी ने छात्रवृत्ति राषि बांटने से इनकार कर दिया तो केन्द्र ने राज्य के हिस्से की भी २५ प्रतिशत राशि देने की बात भी कही. लेकिन, मोदी ने इसे भी लेने और स्कॉलरशिप बांटने से इनकार कर दिया.

मोदी की नजर में केंद्र की यह योजना छात्रों के बीच भेद-भाव पैदा करती है. जबकि, बंबई हाईकोर्ट ये साफ कर चुका है कि इस योजना को देशभर में लागू करने के बाद समाज के दूसरे तबकों पर कोई बुरा असर देखने को नहीं मिला है. अब तो गुजरात हाईकोर्ट ने भी इस योजना पर अपनी मुहर लगा दी है. मगर सामाजिक संगठनों, योजना आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की तमाम कवायदों के बाद भी मोदी इस योजना को अपने राज्य में अब तक लागू करने के बजाए सुप्रीम कोर्ट में अपनी हठधर्मिता की लड़ाई लड़ रहे हैं.

मोदीराज की इस अल्पसंख्यक विरोधी अमल के बाद भी भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन देशभर में ढिंढोरा पीट रहे हैं, गुजरात के अल्पसंख्यकों की प्रति व्यक्ति आय देश के बाकी हिस्सों के अल्पसंख्यकों के प्रति व्यक्ति आय से ज्यादा है. लेकिन, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की वेबसाइट के आंकड़ों पर गौर करने पर पता चलता है कि मोदीराज में मासूम अल्पसंख्यक बच्चों के सपनों का बड़ी ही बेरहमी से कुचला जा रहा हैै. गुजरात में 6 से 17 साल के अल्पसंख्यक बच्चों का अधर में पढ़ाई छोड़ने (ड्रॉप आउट) की दर राष्ट्रीय स्तर से कहीं ज्यादा है. गुजरात में 35.5 फीसदी मुस्लिम और 12.7 फीसदी ईसाई बच्चे आर्थिक तंगी के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हैं. जबकि, देश में मुस्लिम विद्यार्थियों का ड्रॉप आउट 28.8 प्रतिशत और ईसाई विद्यार्थियों का ड्रॉप आउट ९.७ प्रतिशत है।

मोदी के इस तानाशाही रवैए से न सिर्फ गरीब और दबे कुचले अल्पसंख्यक छात्रों का भविश्य अन्धकारमय हो रहा है. बल्कि, मोदी की ये हरकत देश के संघीय ढांचे पर भी चोट करता है।. षिक्ष भारतीय संविधान के समवर्ती सूची में है. इस पर केन्द्र और राज्य दोनों को नियम बनाने का अधिकार संविधान देता है. लिहाजा, केन्द्र की नीति को लागू न करना खुल्लम-खुल्ला भारतीय संविधान का उल्लंघन है. लेकिन, मोदी को न तो संविधान की परवाह है और न ही अपने ही प्रदेष के गरीब  और वंचित मासूमों के भविश्य को बर्बाद होने की. मोदी की तानाषाही रुख ने गुजरात के गरीब अल्पसंख्यक परिवारों के मेधावी विद्यार्थियों को बीच में पढ़ाई छोड़कर 50 से 100 रूपए की मजदूरी करने को बाध्य कर दिया है. उदाहरण के लिए ९ मार्च 2011 को टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर ही काफी है. अहमदाबाद का एक बालक ताहिर खान पढ़ लिखकर इंजीनियर बनना चाहता था. बचपन से ही अपनी लगन और मेहनत के साथ कई साल स्कूल में गुजारे. उसने अपने पसंदीदा विषय मैथ में 70 प्रतिशत अंक भी हासिल किया. लेकिन, घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं होने पर उसके पिता पढ़ाई का प्रतिमाह का 200 रुपए का खर्च नहीं उठा पाए. इस वजह से ताहिर के ख्वाब बीच में ही चकनाचूर हो गए. वह आज 80 रुपए की दिहाड़ी पर मजदूरी कर रहा है. जबकि, केंद्र की प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप के तहत ४५० रुपए प्रतिमाह मिलने वाली राशि ताहिर के सपनों को पंख लगा सकती थी. बहरहाल, ये तो सिर्फ एक ताहिर की कहानी है. गुजरात में हर रोज न जाने कितने ही ताहिर के सपने मोदी की सिर्फ एक जिद से चकनाचूर हो रहे होंगे?

पिछले पांच सालों से मोदी की इस संविधान विरोधी और अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर अल्पसंख्यक मासूम विद्यार्थियों की बदहाली के लिए देष का धर्मनिरपेक्ष और बुध्दिजीवी तबका भी उतना ही जिम्मेदार हैं, जितना कि मोदी. मोदी के टोपी न पहनने के मुद्दे पर तो देषभर में खूब बहस होती है. टोपी पहनने और न पहनने को राश्ट्रीय मुद्दा बना दिया जाता है. जबकि, भारत के संविधान ने हर व्यक्ति (नागरिक) को अपने धर्म और संस्कृति को मानने और उसके अनुसार आचरण करने का अधिकार दिया है. लिहाजा, टोपी पहनना और नहनना ये मोदी का संवैधानिक अधिकार है. लेकिन, दुर्भाग्यवष कथित सेक्यूलरिज्म के अलमबरदार इस मुद्दे को ऐसे उछालते हैं, जैसे मोदी के टोपी न पहनने से टोपी का या मुसलमान का अपमान हो गया. जबकि, मोदी के टोपी पहनने से न तो टोपी की गरिमा बढ़ती और न ही न पहनने से घट गई. वहीं, मोदी पिछले पांच सालों से गुजरात में अल्पसंख्यकों की तरक्की की जड़े काट रहे हैं मासूमों के सपनों से खेल रहे हैं तो इस अमानवीय कृत के विरोध में किसी के आंख से आंसू आना तो दूर जुबान पर एक षब्द भी नहीं आ रहा है. जबकि, शिक्षा किसी भी देश और समाज की विकास की बुनियाद है, जो समाज जितना शिक्षित होता है, वह उतना ही अधिक विकसित होता है. देश में आज अल्पसंख्यकों खास तौर से मुसलमानों की जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है, वह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में गरीब अल्पसंख्यकों को शिक्षा प्राप्ति के लिए केन्द्र से मिलने वाली राशि को रोकना अल्पसंख्यकों को जलीलकर मारने की साजिश नहीं तो और क्या है? मोदी के इस असंवैधानिक कृत से साफ जाहिर होता है कि मोदी ने अब तक 50,000 अल्पसंख्यक विद्यार्थीयों को पढ़-लिखकर आगे बढ़ने से सिर्फ इस लिए रोका है, ताकि, वे शिक्षित होकर समझदार और आर्थिक रूप से मजबूत न हो जाएं।. क्योंकि, ऐसा हुआ तो मोदी राज की हकीकत को वे समझ जाएंगे. इसीलिए अल्पसंख्यकों को जाहिल और गंवार बने रहने की खतरनाक साजिश की जा रही है, ताकि वे जिल्लत की जिंदगी जीते रहें और चंद लोक लुभावन योजनाओं के नाम पर मोदी की तारीफ न भी करें तो कम से कम वोटबैंक की सियासत को तो न समझ सके.

मोदी की हठ से कई सवाल उठ रहे हैं. क्या देश के लगभग 2॰ प्रतिशत अल्पसंख्यकों के विकास के बिना देश कभी सुपर पावर बन सकता है? प्रश्न यह भी है कि आखिर अपने ही प्रदेश में अपनी जनता को इस तरह से जलील कर मारने की सोच रखने वाला व्यक्ति विविधता से भरे इस देश का क्या प्रधानमंत्री बनने के काबिल है? अंत में मोदी जैसी सोच रखने वालों से एक सवाल कि जिन बच्चों को षिक्षित होने से रोका जा रहा है. क्या वह भविश्य में दूसरा कलाम नहीं बनसकता था ? क्या अल्पसंख्यकों के विकास से देष का विकास नहीं होता है?

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